ओए लकी लकी ओए के टाइटल सॉन्ग के आखिर में एक लाइन है.
ओ ले पेट्रोल तो पावैया ही नी...कोई गल नी, साड्डी गड्डी ते गुडविल नाल चल दी ए (ओह , हम पेट्रोल भरवाना भूल गए। लेकिन कोई दिक्कत नहीं क्योंकि मेरी गाड़ी गुडविल पर चलती है)
हालाँकि मैं ज़्यादातर जगहों पर इस प्रकार की गुडविल की उम्मीद नहीं रख सकता, लेकिन यह बात मेरे छोटे शहर के लिए शायद सच हो सकती है। असल में ये उस हर जगह के लिए थोड़ी सच हो सकती है जहां सिर्फ़ पैसा ही एकमात्र मुद्रा नहीं है, गुडविल भी है। पैसा दुनिया को घुमा सकता है लेकिन शायद उन चीज़ों से नहीं घुमा सकता जिन्हें पैसे से नहीं खरीदा जा सकता।
इसलिए शहर के "आर्थिक इंजन" होने का विचार मुझे पूरी तरह से जमता नहीं है। इसका मतलब यह नहीं है कि शहर अर्थव्यवस्था के बारे में नहीं हैं। लेकिन मैं एक छोटे शहर में बड़ा हुआ जहां सिर्फ़ अर्थव्यवस्था ही सब मायने नहीं रखती थी। वो इकलौती ऐसी चीज़ नहीं थी जिससे शहर आगे बढ़ सकता था।
शहर हमेशा से ही उनकी अर्थव्यवस्था से कहीं अधिक महत्वपूर्ण रहे हैं। उनसे आर्थिक इंजन बनने की उम्मीद करने से उन पर कई अन्य चीजों को चलाने की ज़िम्मेदारी आ जाती है और हम यह मान लेते हैं कि उन अन्य चीज़ों के पास खुद को आगे बढ़ाने की ताक़त ही नहीं है।
अर्थ/पैसे पर पहले ध्यान केंद्रित करते हुए, शहर और लोग अक्सर लोगों से अधिक लाभ को प्राथमिकता देते हैं। आप कल्पना कीजिए कि एक छोटे शहर के एक वरिष्ठ नागरिक को अपने बच्चों के विदेश चले जाने के कारण स्थानांतरित होने के लिए मजबूर होना पड़ता है। पर उन्हें अपने शहर में बैंकिंग से जुड़े किसी काम में सहायता की आवश्यकता है। इस स्थिति में पैसा -फ़र्स्ट मानसिकता सबसे पहले एक व्यावसायिक संभावना को देखती है और ऐसी जरूरतों को पूरा करने के लिए 'वरिष्ठ नागरिक वित्तीय देखभाल' के स्टार्ट-अप की संकल्पना करती है। ऐसी दुनिया में हर काम का मूल्यांकन सबसे पहले उसके पैसा बनाने के सामर्थ्य और बिजनेस मॉडल की स्केलबिलिटी (बढ़ाने) के आधार पर होता है।
यह अक्सर कहा जाता है कि व्यक्ति जैसा दुनिया को देखता है वैसा ही काम करता है। अगर कोई सोचता है कि वो दुनिया के साथ जंग लड़ रहा है, तो वह हमेशा लड़ने के लिए तैयार रहेगा। अगर उसे लगता है कि वो शोषित या पीड़ित है तो वे हमेशा किसी न किसी को दोषी ठहराएगा। अगर उसे लगता है कि यह दुनिया एक प्रतियोगिता है तो वे हमेशा जीत की तलाश में रहेगा। और अगर कोई मानता है कि दुनिया एक खूबसूरत जगह है जो हर चीज और हर किसी को गले लगाती है, तो वो भी इसे अपनाएगा।
इसी तरह, अगर कोई सोचता है कि शहर आर्थिक इंजन हैं, तो हर चीज़ में आर्थिक अवसर देखना स्वाभाविक है। इतिहास, विरासत, संस्कृति, प्रकृति, समाज, मानवीय रिश्ते और लगभग हर चीज़ एक लेन-देन बन जाएगी। लेकिन भारतीय शहर बहुत प्राचीन हैं और यहाँ के लोगों के लिए अपने शहर को सिर्फ़ पैसे से चलाने की धारणा जरूरी नहीं है। हम अपने शहरों को उन स्थानों के रूप में सोच सकते हैं जो हमें एक पहचान देते हैं और इसलिए हम उनके साथ गहरे स्तर पर जुड़ने का और उस पहचान के साथ एकीकृत होने का प्रयास कर सकते हैं। यदि हम शहरों को रचनात्मकता के केंद्र के रूप में देखेंगे तो हम उनकी उस रचनात्मकता की तलाश करेंगे। यदि हम शहरों को सीखने और विकास के केंद्र के रूप में देखेंगे, तो शायद हम उनके साथ सीखना और बढ़ना चाहेंगे।
कई लोगों के लिए, यह कल्पना करना मुश्किल नहीं है कि लोग कुछ लाभ की अपेक्षा किए बिना दूसरों की सहायता कर सकते हैं। पड़ोसी घर के निर्माण की देखरेख करते हैं, दूसरों के बिलों का भुगतान करने के लिए कतार में खड़े रहते हैं, बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल करते हैं, शादी जैसे महत्वपूर्ण कार्यक्रमों में हाथ बंटाते हैं, पेशेवर सलाह (कानूनी, वित्तीय) प्रदान करते हैं और इसी तरह कई और कामों में हाथ बँटाते हैं।
उनके लिए कोई चीज़ सिर्फ़ इसलिए करने लायक नहीं है क्योंकि किसी की मजबूरी में एक व्यावसायिक /आर्थिक अवसर छुपा है। बल्कि वो कर्तव्य की भावना और मदद करने की इच्छा के कारण यह करना चाहते हैं।
फिल्म डार्क वाटर्स में मार्क रफालो द्वारा निभाया गया रॉब बिलोट का किरदार इस मानसिकता का एक आदर्श उदाहरण हो सकता है। वो कॉर्पोरेट लापरवाही से नुकसान उठाने वाले लोगों के लिए एक लम्बी जंग छेड़ देता है। और जंग शुरू सिर्फ़ इसलिए करता है क्यूँकि उनकी दादी उस किसान से परिचित है जिसने इस लापरवाही के कारण अपने बहुत सारे मवेशियों को खो दिया था। बिलोट की कहानी व्यक्तिगत संबंधों, सद्भावना/गुडविल और कर्तव्य की भावना के प्रभाव का एक शक्तिशाली प्रमाण है जो यह दिखाती है कि कुछ काम आर्थिक हितों से परे किए जा सकते हैं।
कुछ साल पहले, हमें एक पूर्वी शहर में एक युगल से मिलने का सौभाग्य मिला जो हमारे दूर के रिश्तेदार थे। हमारी पहली मुलाकात के दौरान उन्होंने ने हमारी बहुत अच्छे से मेहमानवाज़ी करी, हमें शहर घुमाया और रात के खाने पर बुलाया। जैसे ही हमें हमारे होटल में छोड़ा जाने वाला था, उन्होंने हमें एक बड़ा स्क्रॉल दिया और इसे खोलने के लिए कहा। वो हाथ से बनाई गई कलाकृति का एक अद्भुत नमूना था और उसे देखकर हम दंग रह गए। हमने तो यही सोचा कि यह किसी राज्य हस्तशिल्प शोरूम से ख़रीदा गया है, लेकिन हमारे मेजबान ने खुलासा किया कि वास्तव में इसे उन्होंने स्वयं बनाया था। उन्होंने खुद ही कला यह सीखी थी।
अगर स्क्रॉल को किसी शोरूम या प्रदर्शनी में बेचा जाता तो वह बहुत महँगे दामों में बिकता। लेकिन उन्होंने हमें बताया कि इसे पैसों के लिए नहीं, बल्कि उन लोगों को देने के लिए बनाया है जिनकी वो परवाह करती हैं। यदि कोई परवाह करता है, तो उसे हर समय बिजनेस मॉडल की आवश्यकता नहीं होती। यदि वे परवाह करते हैं, तो बिज़्नेस मॉडल में भी परवाह और सद्भावना शामिल हो जाती है। ऐसे कई मॉडल हैं जो कई जगहों पर मौजूद हैं और वे सब मॉडल हमेशा किसी बड़े पैमाने/स्केल को नहीं ढूँढ रहे होते हैं। लेकिन शायद ऐसे ही मॉडल हैं जिन्हें स्केल करने की जरूरत है। वे मानवीय संबंधों की उस सच्चाई का प्रतीक हैं जो आर्थिक तर्क से परे है। यह हमारे शहरों और उनमें रहने वाले लोगों की सच्चाई है।
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