बहुत घुटन है कोई सूरत-ए-बयां निकले
अगर सदा न उठे कम से कम फ़ुग़ां निकले
फ़कीरे शहर के तन पर लिबास बाक़ी है
अमीरे शहर के अरमां अभी कहाँ निकले?
हकीकतें हैं सलामत तो ख्वाब बहुतेरे
मलाल क्यूँ हो जो कुछ ख्वाब रायगां निकले
वह फ़ल्सफ़े जो हर इक आस्तां के दुश्मन थे
अमल में आए तो खुद वक्फ़े-आस्ताँ निकले
उधर भी ख़ाक उड़ी, उधर भी ज़ख्म पड़े
जिधर होके बहारों के कारवां निकले
सितम के दौर में हम अहले-दिल ही काम आए
ज़बां पे नाज़ था जिनको वह बेज़बां निकले
Its stifling, hope there is some way of expressing the angst,
even if no protest, then at least some wails of cry should come.
The poor of the city are still left with their clothes
so the rich of the city still haven’t fulfilled their desires.
If the reality is preserved then one can dream a lot
and why should there be regret if all dreams were not worth it.
The philosophy which was against a place
when put to practice, was destined for that place itself.
Those places also saw desertion and pain,
where spring was abound.
During the difficult times, us big hearted people came of use
those who prided on their words, didn’t say a word (didn’t help).
साहिर लुधिआनवी जी की ये शायरी लफ़्ज़ी (literal)तौर पर हमारे शहरों की घुटन और हक़ीक़त को शायद बख़ूबी बयान करती है। खैर अब सदा (आवाज़) भी उठती है और फ़ुग़ां (रूदन उर्फ़ रोना) भी सुनाई देती है।
मगर इस शेर को यहाँ मैंने इसलिए लिखा क्य़ोंकि इसे पढ़ते पढ़ते मुझे ये ख़याल आया कि वो भी एक ज़माना था जब शायर अपनी पहचान अपने शहर से ही बनाते थे और अपनी मशहूरी को शहर को ही नज़र कर देते थे। बेताब अज़ीमाबादी, जिगर मुरादाबादी, जोश मलीहाबादी, खलिश बड़ौदवी, हफ़ीज़ जालंधरी, निज़ाम रामपुरी, दाग़ देहलवी और कई अनेकोनेक।
इन दिनों गर्चे दक्कन में है बड़ी क़द्र ए सुख़न , कौन जाए ज़ौक़ पर दिल्ली कि गलियां छोड़कर (Though the seat of power and comfort all lies in deccan now, who wants to leave the streets of Delhi)। इब्राहिम ज़ौक की ये चंद पंक्तियां, दिल्ली के लिए उनकी अज़ीम मुहब्बत दिखाती हैं। इसलिए शहर और शायर का ये रिश्ता सिर्फ पहचान और अहसान का नहीं था। कई शायरों के लिए ये रिश्ता अपने उस शहर से होने वाली शिद्दत भरी उल्फत का भी था। मगर मोटे तौर पर ये तखल्लुस (nom de plume) शायर को उसके शहर से जोड़ता था। यू पी और पंजाब के शायरों के बीच के मुक़ाबले में इन शहरों के नाम गैर मामूली नहीं थे।
क़ाबिल – ए – तबज्जो classical उर्दू शायरी कुछ तीन सौ साल पुरानी ही है। सन 1700 के आस पास, दक्कन में पिछले 400-500 साल में तैयार हुए उर्दू अदबी उलूम और रवायतों (literary tradition) को इख्तियार करके दिल्ली और लख़नऊ में उर्दू शायरी ने परवाज़ (flight) पकड़ी।
हैदराबादी दक्कन , दिल्ली और लख़नऊ में classical दौर की शायरी शहंशाहों, नवाबों और तामील तरबीयत देने वाले मर्कज़ों की हौंसला हफ़ज़ाई और सहारे से पनपी । मिसाली जामिआ मिलिया, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, ओस्मानिया यूनिवर्सिटी। सौदा, दर्द, ज़ौक, मीर इसी classical दौर से थे। ये मुग़लों की सल्तनत का दौर था। उसके बाद अंग्रेज़ी हुक़ूमत कायम हो गयी। अब्दाली और नादिर शाह के हमलों के बाद मुग़लिया ताक़त जाती रही और साथ ही साथ मीर जैसे कई शायर लख़नऊ और हैदराबाद की तरफ़ कूच कर गए। इस दौर में मुग़लों का रसूख़ धीरे धीरे कम होकर ख़त्म हुआ और अंग्रेज़ों का परचम ऊंचा होता गया। मिर्ज़ा ग़ालिब इस तब्दीली के दौर के शायर थे।
उर्दू के नए दौर की शायरी में समाज में उस समय हो रहे बदलावों का घुलना लाज़मी था। पश्चिमी मघरबी रवायतों का असर शायरी पर भी पड़ा। हिंदुस्तान में फ़ारसी की जगह अंग्रेज़ी ने ले ली। अब शायरी नवाबी और बादशाही शौकों की जगह, आम आवाम की तरफ़ मुखातिब हुई। उस दौर की सियासत ने भी शायरी पर असर डाला। पश्चिमी ख़यालों जैसे liberalism, citizen rights, individual rights वग़ैरह ने शायरी में हो रही मौजूदा सोच को ढालना शुरू किया और उस समय के कई शायरों ने कई जोशीली वतनपरस्त (zealous and patriotic) नज़्में लिखीं। जोश, मजाज़, बिस्मिल जैसे कई नामवर शायरों ने आग उगलती हुई शायरी को अंजाम दिया। काफी आगे जाकर Progressive Writers Association भी इसी दौर का कहीं हिस्सा बना।
इस दौर में पहुँच कर उर्दू का काम सिर्फ भाषा और लफ़्ज़ों के तौर पर शायरी को ख़ूबसूरती का लिहाफ पहनाना नहीं था। classical दौर की शायरी में मौहब्बत, तारीफ़ें, रूमानियत (romance), और रूहानियत (spirituality) जैसे मजमून (content) को ज़्यादा तर्ज़ीह दी जाती थी। अब जो शायरी में ज़ाहिर हो रहा था, वो रोज़मर्रा की चीज़ों का बेबाक हाल-ए-बयान था। अभी भी शायरी में बहार, गुलशन, जन्नत, दिन, रात, समंदर , सेहरा जैसी चीज़ों का ज़िक्र ए शुमार (profuse mention) था मगर अब उनका इशारा मौजूदा हालातों की तरफ था।जहां पहले शायरी रूमानियत के ज़रिये अपने महबूब की चाहत का इज़हार करके फरहत (pleasure) तलाशती थी, अब वही रूमानियत वतन की चाहत में तब्दील हो गयी थी। जहां पहले शायरी में ग़ज़ल (ode), क़सीदा (ode in form of ballad), मसनवी (describing long old battles), मर्सिया (praise for islamic heroes) जैसे तरीकों और तर्तीबों की बेशुमारी थी, वहीं अब नए दौर में नज़्में (thematic poem), मुसद्दस ( six line free form) अब अलहदा अलहदा इंसानी तजुर्बों को बयान कर रही थी। इनमें अब आम आदमी , आम शहरी की आवाज़ थी, दर्द था, फ़रियाद थी, ग़ुस्सा था। नए दौर में शख्सियत,समाज और वतन के रिश्तों के मायने खुदी को बुलंद करना थे और खुदी को ज़ाहिर करके खुद को, समाज को और वतन को बेहतर बनाना थे।
पुराने से नए दौर के बदलाव में अंदाज़ ए बयान traditional न हो कर के और ज़्यादा इंसानी, और ज़्यादा सेक्युलर हो गया। ये बदलाव हमारे जादीद (modern) शहरों के पैदा होने से आज़ादी तक के सफ़र का हमसफ़र रहा है।
शहर मुग़लों के ज़माने में भी थे। मगर बदलाव के दौर में जब मुग़लों के बसाये शहर बर्बादी की तरफ़ जा रहे थे, ऐसे ही समय पर शहर-ए-अशोब (lament of city) मशहूर हुआ। बहादुर शाह ज़फर , सौदा और कइयों ने दिल्ली की वीरानीयत और बदहाली का बयान इनमें किया। दो हुकूमतें गुज़र गयी हैं मगर अशोब अब भी है। मगर अब इज़हार करने की तबीयत, तरानों और ज़रियों में कमी आ गयी है।
तो मेरा फ़ल्सफ़ा ये है कि हमारे शहरों और शायरों का इर्तिक़ा (evolution) साथ साथ हुआ बस ये बात अलग है कि हमारे शहर अभी भी तरक्की (या बदतरक्की) पर हैं मगर शायरी नहीं।
Comments